॥दोहा॥
जयति गंगे भागीरथि सुखदायिनी सुविश्रुता।
पाप हारिणि पुण्यदा, मुनि-जन हृदय निवासिनी॥
जयति गंगे भागीरथि सुखदायिनी सुविश्रुता।
पाप हारिणि पुण्यदा, मुनि-जन हृदय निवासिनी॥
॥चौपाई॥
जय गंगे जगजननि भवानी। त्रिभुवन पावन सुखदायिनी॥
शंकरमस्तक भूषण कारी। त्रिपुरारी जगत हितकारी॥
जय गंगे जगजननि भवानी। त्रिभुवन पावन सुखदायिनी॥
शंकरमस्तक भूषण कारी। त्रिपुरारी जगत हितकारी॥
भागीरथ तप बल से आई। त्रैलोक्य पावनि सुखदाई॥
सकल मुनि जन ध्यान लगावैं। भक्तिपूर्वक स्तुति गुण गावैं॥
सकल मुनि जन ध्यान लगावैं। भक्तिपूर्वक स्तुति गुण गावैं॥
हरित धरनि अम्बुधि सुखकारी। तारनि भवसागर दुखहारी॥
शरण गहि जो जन नित ध्यावैं। तिनके पाप सकल ही जावैं॥
शरण गहि जो जन नित ध्यावैं। तिनके पाप सकल ही जावैं॥
गंगा जल महिमा अपरंपारा। पावनि करै सकल संसारा॥
स्मरण करै मन जो कोई। ता पर कृपा करहु जगदंबा सोई॥
स्मरण करै मन जो कोई। ता पर कृपा करहु जगदंबा सोई॥
स्नान तट पर जो नर करई। भव भय ता पर कभी न धरई॥
अमृत तुल्य तव महिमा गाई। नारद शेष मुनि मन ध्याई॥
अमृत तुल्य तव महिमा गाई। नारद शेष मुनि मन ध्याई॥
शंकर जटाजूट में धारी। शीतल मंगल सुखदायक कारी॥
तुम बिन जग जीवन सूना। जननी गंगे करहु न दूना॥
तुम बिन जग जीवन सूना। जननी गंगे करहु न दूना॥
जग जननी त्रिभुवन सुख दायिनी। भक्तन संकट हरनि भवानी॥
दीनन की अरज स्वीकारो। भव भवनी भव भय निवारो॥
दीनन की अरज स्वीकारो। भव भवनी भव भय निवारो॥
तव जल पान करे जो कोई। ता पर कृपा करें जगदंबा सोई॥
भवसागर भव दुख निवारी। गंगा मैया भव भय टारी॥
भवसागर भव दुख निवारी। गंगा मैया भव भय टारी॥
जो गंगाजी की सेवा करई। निज तन मन धन सफल करई॥
सुख संपत्ति सदा वह पावै। भव भय भव बंधन छुटावै॥
सुख संपत्ति सदा वह पावै। भव भय भव बंधन छुटावै॥
जयति जयति गंगे भवानी। त्रिभुवन तारिणि सुख दानी॥
भवसागर से पार उतारो। निज शरण अब जन को धारो॥
भवसागर से पार उतारो। निज शरण अब जन को धारो॥
॥दोहा (समाप्ति)॥
गंगा चालीसा जो पढ़ै, सुनै मन लगाइ।
सकल मनोरथ सिद्धि होय, भव बंधन छूटाइ॥
गंगा चालीसा जो पढ़ै, सुनै मन लगाइ।
सकल मनोरथ सिद्धि होय, भव बंधन छूटाइ॥